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रात के आठ बजे थे। ज्ञानशंकर के दीवानखाने में शहर के कई प्रतिष्ठित सज्जन जमा थे। बीच में एक लोहे का हवनकुण्ड रखा हुआ था, उसमें हवन हो रहा था। हवनकुण्ड के एक तरफ गायत्री बैठी थी, दूसरी तरफ ज्ञानशंकर और माया। एक पंडित जी वेद-मन्त्रों का पाठ कर रहे थे। गायत्री का चम्पई वर्ण अग्नि-ज्वाला से प्रतिबिम्बित हो कर कुन्दन हो रहा था। फिरोजी रंग की साड़ी उस पर खूब खिल रही थी। सबकी आँखें उसी के मुख-दीपक की ओर लगी हुई थीं। यह माया को गोद लेने का संस्कार था, वह गायत्री का धर्मपुत्र बन रहा था। कुछ सज्जन आपस में कानाफूसी कर रहे थे, कैसा भग्यावान लड़का है! लाखों की सम्पत्ति का स्वामी बनाया जाता है, यहाँ आज तक एक पैसा भी पड़ा हुआ न मिला। कुछ लोग कह रहे थे– ज्ञानशंकर एक ही बना हुआ आदमी है, ऐसा हत्थे पर चढ़ाया कि जायदाद ले कर ही छोड़ा। अब मालूम हुआ कि महाशय ने स्वाँग किसलिए रचा है। ये जटाएँ इसी दिन के लिए बढ़ायी थीं। कुछ सज्जनों का मत था कि ज्ञानशंकर इससे भी कहीं मलिन हृदय है।
लाला प्रभाशंकर ने पहले यह प्रस्ताव सुना तो बहुत बिगड़े लेकिन जब गायत्री ने बड़ी नम्रता से सारी परिस्थिति प्रकट की तो वह भी नीमराजी से हो गये। हवन के पश्चात दावत शुरू हुई। इसका सारा प्रबन्ध उन्हीं के हाथों में था। उनकी अर्धस्वीकृति को पूर्ण बनाने का इससे उत्तम कोई अन्य उपाय न था। उन्हें पूरा अधिकार दे दिया गया था कि वह जितना चाहे खर्च करें, जो पदार्थ चाहे पकवायें। अतएव इस अवसर पर उन्होंने अपनी सम्पूर्ण पाककला प्रदर्शित कर दी थी। इस समय खुशी से उनकी बाँछे खिली जाती थीं, लोगों के मुँह से भोजन सराहना सुन-सुन कर फूले न समाते थे। इनमें कितने ही ऐसे सज्जन थे जिन्हें भोजन से नितान्त अरुचि रहती थी। जो दावतों में शरीक होना अपने ऊपर अन्याय समझते थे। ऐसे लोग भी थे जो प्रत्येक वस्तु को गिन कर तौल कर खाते थे। पर इन स्वादयुक्त पदार्थों ने तीव्र और मन्द अग्नि में कोई भेद न रखा था। रुचि ने दुर्बल पाचनशक्ति को भी सबल बना दिया था।
दावत समाप्त हो गयी तो गाना शुरू हुआ। अलहदीन एक सात वर्ष का बालक था, लेकिन गानशास्त्र का पूरा पंडित और संगीत कला में अत्यन्त निपुण। यह उसकी ईश्वरदत्त शक्ति थी। जलतरंग, ताऊस, सितार, सरोद, वीणा, पखावज, सारंगी-सभी यन्त्रों पर उसका विलक्षण आधिपत्य था। इतनी अल्पावस्था में उसकी यह अलौकिक सिद्धि देख कर लोग विस्मित हो जाते थे। जिन गायनाचार्यों ने एक-एक यन्त्र की सिद्धि में अपना जीवन बिता दिया वह भी उसके हाथों की सफाई और कोमलता पर सिर धुनते थे। उसकी बहुज्ञता, उनकी विशेषता को लज्जति किये देती थी। इस समय समस्त भारत में उसकी ख्याति थी, मानों उसने दिग्विजय कर लिया हो। ज्ञानशंकर ने उस उत्सव पर उसे कलकत्ते से बुलाया था। वह बहुत दुर्बल, कुत्सित, कुरुप बालक था, पर उसका गुण उसके रूप को भी चमत्कृत कर देता था। उसके स्वर में कोयल की कूक का सा माधुर्य था। सारी सभा मुग्ध हो गयी।